27-Apr-2024

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बैक्टीरिया ने एंटीबायोटिक से लड़ना कैसे सीखा...

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प्राकृतिक चयन के सिद्धांत के एक पहलू- क्रमागत उन्नति के वेग को लेकर डार्विन निश्चित नहीं थे. उनके मुताबिक़ यह बहुत ही धीमी प्रक्रिया थी और बदलाव देखने के लिए एक मानव जीवन शायद छोटा पड़ जाता. पर आज हम जानते हैं कि यह असंभव नहीं है. बैक्टीरिया में एंटीबायोटिक से लड़ने की शक्ति का आना इसका एक उदाहरण है.

आज जब हमें एक बैक्टीरिया का इंफेक्शन होता है, तो हम अक्सर एक एंटीबायोटिक खाते हैं. एंटीबायोटिक की खोज की कहानी लगभग 100 साल पुरानी है. बीसवीं सदी की शुरुआत मे एंटीबायोटिक ढूंढ़ने की कोशिश में काफी शोध होता था. एंटीबायोटिक ढूंढने के दो मुख्य तरीके होते थे.

पहला, कि बीमारी करने वाले जंतुओं पर विभिन्न-विभिन्न रसायन डाले जाएं और ये देखा जाए कि ऐसे कौन-से रसायन हैं जिनसे वह जंतु मर जाते हैं. इस तरीके में जो रसायन टेस्ट किए जाते थे, वह प्राकृतिक भी हो सकते थे या प्रयोगशाला में बनाए कृत्रिम भी.

पर इस खोज की यात्रा में एक बड़ा बदलाव एलेक्ज़ेंडर फ्लेमिंग के कारण आया. 1928 में छुटियां मनाकर जब वह अपनी प्रयोगशाला में लौटे और प्रयोग वाली पेट्री डिश पर गौर किया तो पाया कि कुछ प्लेट पर बैक्टीरिया के साथ-साथ फंगस भी उगने लगा था. यह अच्छा नहीं था क्योंकि उनका प्रयोग केवल बैक्टीरिया के साथ था. पर फंगस के आ जाने के कारण नुकसान होने के साथ एक बहुत बड़ा फायदा भी था. फ्लेमिंग ने देखा कि कुछ प्लेट पर फंगस जहां-जहां उग रहा था, वहां के नज़दीक बैक्टीरिया मर रहा था. ऐसा क्यों हो रहा था?

थोड़ी और जांच करने पर पता चला कि बैक्टीरिया की मौत का कारण फंगस द्वारा बनाया एक केमिकल था, जिससे फंगस को तो कुछ नहीं हो रहा था, पर बैक्टीरिया की मौत हो रही थी. इस शोध के साथ ही आधुनिक एंटीबायोटिक का जन्म हुआ था.

दरअसल, एंटीबायोटिक शब्द का अर्थ ही ‘एंटी’ यानी ‘विरुद्ध’ और ‘बायोटिक’ यानी ‘जीवन’ है- अर्थात, एक ऐसा तत्व जो जीवन के खिलाफ हो (चाहे वो जीवन बैक्टीरिया का ही क्यों न हो).

एंटीबायोटिक एक वरदान की तरह आईं – 1940 के दशक तक आते-आते एंटीबायोटिक बहुत मात्रा में बनाया जाने लगा- अनुमान है कि द्वितीय विश्व युद्ध में एंटीबायोटिक के प्रयोग के कारण करोड़ों जानें बचाई गईं. ये एंटीबायोटिक पेनिसिलीन थी. बीसवीं सदी के बीच बहुत से नए एंटीबायोटिक्स की खोज हुई, और कुछ ने अनुमान लगाया कि इतनी खोज के बाद अब हमें बैक्टीरिया से डरने की कभी ज़रूरत नहीं होगी. पर ऐसा नहीं हुआ.

कुछ ही दशकों में देखा गया कि अत्यधिक प्रयोग के कारण बैक्टीरिया एंटीबायोटिक के खिलाफ जीवित रहना सीख गए हैं. ये डार्विन के प्राकृतिक चुनाव के सिद्धांत का एक सटीक उदाहरण है. ऐसी सूरत में जब बैक्टीरिया के इंफेक्शन के बाद हम एंटीबायोटिक लेकर उन्हें मारकर ठीक हो रहे थे, अब वही एंटीबायोटिक बैक्टीरिया मारने में नाकाम हैं.

नई एंटीबायोटिक की खोज एक आसान काम नहीं है- इसमें दशकों की मेहनत और सैकड़ों करोड़ों का खर्चा है. एंटीबायोटिक के प्रति लड़ने की योग्यता इतनी गति से बैक्टीरिया में आएगी शायद ये किसी ने न सोचा हो.

प्राकृतिक चयन के सिद्धांत के एक पहलू, जिस पर डार्विन खुद गलत थे, वह क्रमागत उन्नति के वेग को लेकर था. डार्विन की सोच में क्रमागत उन्नति बहुत ही धीमी प्रक्रिया है और बदलाव देखने के लिए एक मानव जीवन शायद छोटा पड़ जाता. पर आज हम जानते हैं ऐसा नहीं है. बैक्टीरिया में एंटीबायोटिक से लड़ने की शक्ति का आना ऐसा ही एक उदाहरण है.

पिछले कुछ दशकों में काफी शोध हुआ है, यह समझने के लिए कि एंटीबायोटिक के खिलाफ लड़कर न मरने की शक्ति बैक्टीरिया में कितनी जल्दी आ सकती है. 2016 में हार्वर्ड विश्वविद्यालय से आए एक दिलचस्प शोध में इस सवाल को समझने में मदद मिलती है.

शोधकर्ताओं ने एक विशाल प्लेटफॉर्म तैयार किया था, जिस पर बैक्टीरिया तैरकर एक कोने से दूसरे कोने तक जा सकता था. इस प्लेटफॉर्म का आकार 4 x 2 फीट था. प्रयोगशाला में सामान्य तौर पर इस्तेमाल किए जाने वाले डिश का आकार कुछ सेंटीमीटर ही होता है.

प्लेटफॉर्म बनाने के बाद उन्होंने बैक्टीरिया के उगने के लिए पोषक तत्व डाले, पर इस तरह कि प्लेटफॉर्म के दोनों सिरों पर कोई एंटीबायोटिक नहीं थी. पर सिरों से जैसे-जैसे प्लेटफॉर्म के मध्य तक आएं, एंटीबायोटिक की मात्रा बढ़ती चली गई. यह मात्रा इतनी ज़्यादा थी कि प्लेटफॉर्म के ठीक बीच में बैक्टीरिया को मारने के लिए जितनी एंटीबायोटिक चाहिए होती है, उससे 1,000 गुना ज़्यादा थी.

ऐसा करने के बाद उन्होंने प्लेटफॉर्म के दोनो सिरों पर बैक्टीरिया को डाला. पोषक तत्व डालते समय उन्होंने इस बात का ध्यान रखा कि वह इतना तरल रहे कि बैक्टीरिया उसमें तैरकर एक छोर से दूसरे छोर तक जा सके.

प्रयोग को ऐसे शुरू करने के बाद उन्होंने अगले कुछ दिनों में जो घटित हुआ, उसे बस रिकॉर्ड किया. जैसा कि सोचा था, बैक्टीरिया ने दोनों छोरों से मध्य की तरफ तैरना शुरू किया. पर ऐसा करने से वह प्लेटफॉर्म के उस हिस्से में आ रहे थे, जहां एंटीबायोटिक थी. ध्यान रखिए कि जिस बैक्टीरिया से प्रयोग की शुरुआत की गई थी, वह ज़रा-सी भी एंटीबायोटिक सहन नहीं कर सकता था.

जैसे ही बैक्टीरिया एंटीबायोटिक के संपर्क में आते हैं, वह आगे नहीं तैरते- आगे एंटीबायोटिक का होना ऐसा करने से उन्हें रोकता है. पर कुछ अंतराल पर देखा गया कि प्लेटफॉर्म के किसी एक हिस्से से बैक्टीरिया फैलने लगते हैं- उस जगह में भी जहां एंटीबायोटिक थी. ऐसा कैसे हुआ?

दरअसल, एंटीबायोटिक के स्पर्श करते ही वह बैक्टीरिया जिनसे प्रयोग शुरू हुआ था, वह रुक जाते हैं. पर कुछ समय बाद एक ऐसा उत्परिवर्ती बैक्टीरिया पैदा होता है जो एंटीबायोटिक की थोड़ी-सी मात्रा सहन कर सकता है- यह उत्परिवर्ती और उसके वंशज थोड़ी देर में एंटीबायोटिक वाले इलाके में फैलने लगते हैं.

जब यह और ज़्यादा एंटीबायोटिक वाले इलाके के संपर्क में आते हैं, तो फिर फैल नहीं पाते. अब एक बार फिर बैक्टीरिया का फैलना रुक जाता है, जब तक एक ऐसा उत्परिवर्ती पैदा नहीं होता जो इस ज़्यादा एंटीबायोटिक वाले इलाके में फ़ैल सके. और इस तरह प्राकृतिक चयन का सिद्धांत इस मनुष्य द्वारा बनाए गए प्लेटफॉर्म पर चलता रहता है, जब तक कि पूरा प्लेटफॉर्म बैक्टीरिया द्वारा घिर नहीं जाता.

मारे जाने के लिए जितनी मात्रा चाहिए थी, उससे 1,000 गुना ज़्यादा मात्रा से भी न मरना बैक्टीरिया की एक छोटी-सी आबादी कुछ दिनों में ही सीख गई. मुझे ये बात अचंभित करती है. धरती इतनी बड़ी प्रयोगशाला है- इसके हर एक कोने में जीव-जंतु प्राकृतिक चयन के सिद्धांत के अंतर्गत क्या-क्या सीख रहे हैं, क्या-क्या नए अचंभित करने वाले करिश्मे हो रहे हैं- ये जान पाने की कोशिश मुझे व्यक्तिगत रूप से क्रमागत उन्नति को समझने और पढ़ने के लिए प्रेरित करती है.


(लेखक आईआईटी बॉम्बे में प्रोफेसर हैं.)

साभार- द वायर








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